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गुरुवार, 31 मई 2018

संत श्री जगजीवन साहेब कोटवा बाराबंकी

संत श्री जगजीवन साहेब का जन्म बाराबंकी जिले में घाघरा नदी तट की ग्राम सरदार के एक चंदेल क्षत्रिय परिवार में संवत 1727 विक्रमी माघ शुक्ल सप्तमी दिन मंगलवार (7 फरवरी 1670 ईस्वी) को प्रातः काल की बेला में हुआ था। पूर्व जन्म संस्कारों के प्रतिफलन में बालपन से ही उनमें सात्विक स्वभाव, प्राणियों से प्रेम और साधु सेवा का भाव उदय हुआ। किशोरावस्था पहुंचते ही उन्होंने गुरुसडी - गोंडा के प्रसिद्ध संत विशेश्वर पुरी से दीक्षा और मंत्र लेकर साधना रथ हो गए। नाम जप से प्रारंभ कर अजपा जप, सूरत साधना व निर्गुण ब्रह्म की उपासना की ओर वह बढ़ते चले गए। ग्रहस्थ जीवन अपना कर भी गहरी लगन, तन्मयता, शुद्ध सात्विक जीवन व समर्पण भाव के बल पर वे प्रायः समाधि और ज्योतित ब्रह्मानुभूति में डूब जाते थे। उनकी उच्च आध्यात्मिकता और तेजस्विता से प्रभावित हो अनेक भक्ति निकट जुड़ने लगे। 38 वर्ष की आयु तक संत श्री की ख्याति दिग-दिगंत में फैल चुकी थी। उस समय तक उनके 87 मुख्य शिष्य, आध्यात्म की प्रबल धारा में डूब, सतनाम पंथ के प्रसार में जो चुके थे, जन्म स्थान में साधना में विघ्न पाकर संत श्री कोट वन (वर्तमान कोटवाधाम) में आ विराजे और जीवन पर्यंत यही रहे। समर्थ गुरु ने भ्रमित समाज को जागृत करने और सच्चे धर्म की ओर मोड़ने के लिए "मूल गद्दी कोटवाधाम" के अंतर्गत चार आधार स्तंभ (चार पावा) स्थापित किया। श्री गोसाई दास जी (कमोली धाम), श्री दुलन दास जी (धर्मे धाम), श्री देवी दास जी (पुरवा धाम) पूरे देवीदास और श्री ख्याम दास जी (मधनापुर धाम), संत श्री द्वारा घोषित आदि महंत बने। संत श्री के समान यह सभी उच्च कोटि के गृहस्थ साधक थे। एक सतनामी ग्रंथ के अनुसार -
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जग जीवन धारा सलिल, दूलन दास जहाज।
देवीदास केवट सरिस, तारयो सकल समाज।।
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इन चार स्तंभों के अतिरिक्त साधना स्तर के अनुसार 14 गद्दीधर, 36 भजनिया, 33 सुमिरिनिहा महंतों व भक्तों की श्रंखला खड़ी हो गई जो उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में फैले हुए थे। संत श्री ने साधना उपलब्धि को सराहा, कुल और वर्ण को नहीं। इसी कारण उन्होंने कुर्मी, कोरी, धुनिया, मुराई, रैदास, कायस्थ, बनिया, यादव, पंजाबी आदि सभी जातियों और मुस्लिम वर्ग के  सतनाम भक्ति धारा से अनुप्रमाणित भक्तों को महंत गद्दीधर के पद दिया। समर्थ गुरु जगजीवन साहब ने जटिल पूजा पाठ, मिथ्या कर्मकांड, सकाम तीर्थ स्नान और यज्ञ-पुरश्चरण के स्थान पर शुद्ध जीवन अपना कर निस्वार्थ भाव से माया-लिप्सा से दूर रहकर नाम-जप का उपदेश दिया। ईश्वर प्राप्ति व मन की शांति के लिए बन बन भटकने के स्थान पर गृहस्थ रूप में रहकर भी ममत्व, अहंकार एवं इंद्रिय दासता से परे हट सार्थक जीवन जिया जा सकता है और उच्चतम साधना की जा सकती है यही उन्होंने अपने जीवन में चरितार्थ किया। भक्तों पर कृपा कर उन्हें भी उसी मार्ग में आगे बढ़ा सूरत साधना में रत कर दिया। समर्थ गुरु एवं शिष्यों की उच्च साधना के फल स्वरुप अनेक अनहोनी घटनाएं जन जन को देखने को मिली, जो कीरत सागर नामक ग्रंथ में वर्णित है। ये प्रकट करती है कि साधक ईश्वर के समान सामर्थवान बन जाता है, एवं करुणा वश उन्हें प्रकट कर देता है। संत श्री का सारा जोर सहज निर्मल जीवन जीने, माया और आसक्ति में न फंसने, नाम जप का आश्रय ले सूरत ध्यान में डूब जाने, एवं साधु सेवा व सत्संग पर दिया गया है  वह परम तत्व सातवें लोक में ना होकर जन जन के अंतर स्थल में समाया है, इसीलिए बाहर भटकने के बजाय सारी शक्तियों को अंतर्मुखी कर हृदय स्थल में उसे खोजने, उसको पाने की गहरी ललक जगाने और गहनतम व्याकुलता के बल पर उस तक पहुंचा जा सकता है। जिसमे "स्व" व देहभाव पूर्ण रुप से विगलित हो शून्यमय हो जाता है। उसी शून्य दशा में सीमातिक्रमण हो परम सत्ता का अवतरण होता है  अचानक जीवन का स्वरुप बदल जाता है  अलौकिक ज्योति के दर्शन कर भक्त परम आनंद में डूब जाता है  ऐसा मिलन होने पर सृष्टि का कण-कण ईश्वर में लगने लगता है। प्रारंभ में यह दशा क्षणिक होती है परंतु भक्त साधना के बल पर उसे दृढतर कर स्थायित्व देता है। संसार से भागकर, उससे लड़कर, उसे नहीं जीता जा सकता है। आखिर वह भी तो उसी परमसत्ता की रचना है, उसी का अंश रूप है। छोड़ना "मन" का धर्म है नाकी शरीर का इसलिए दूर हट कर भी न "मैं" छूटता है, न माया और न इंद्रिय सुख। मन को जकड़ कर बांध लिया तो घर संसार में रहकर भी क्या बिगड़ेगा? संत जगजीवन साहब ने गृहस्थो से कहा -
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अल्प आहार, स्वल्प ही निद्रा, दया क्षमा प्रभु प्रीत।
शील संतोष सदा निरवाहो, है वह त्रिगुणातीत।।
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संत श्री ने 27 ग्रंथ लिखवाएं, जिन्हें उत्तराधिकारी संतों द्वारा 13 स्वतंत्र व 14 लघु ग्रंथों को 5 में संयुक्त कर 18 ग्रंथ बताए गए हैं। उनमें से "अघबिनास" प्रमुख है। जो कि साधना पंथ का मार्गदर्शक है। इसे संत श्री ने शिष्य, विष्णुदास मुल्तानी के द्वारा सन 1721-23 ईसवी में लिखवाया। इसमें भक्ति, वैराग्य, सगुण - निर्गुण और मोह - माया, लिप्सा आदि का विवेचन है। जो कि चार संवादों के मध्य पिरोया है ..... । (SSD/३१/०५/१८/संकलित अंश "अघबिनास" ग्रंथ आमुख)
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जय जगजीवन, जय सतनाम!
अघम उद्धारन, श्री कोटवाधाम!!

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