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शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

जायसी कृति "कहरानामा" और "मसलानामा" जिसकी पाण्डुलिप तिलोई के सतनामी संत दूलनदास के पुत्र और जायस के पूर्व मंत्री के पुश्तैनी विरासत थी


मलिक मुहम्मद जायसी (१४७७-१५४२) हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं। वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। जायसी मलिक वंश के थे
कहरानामा का रचना काल 947 हिजरी बताया गया है। यह काव्य ग्रंथ कहरवा या कहार गीत उत्तर प्रदेश की एक लोक- गीत पर आधारित में कवि ने कहरानाम के द्वारा संसार से डोली जाने की बात की है।
इनके अतिरिक्त 'महरी बाईसी' तथा 'मसलानामा' भी आपकी ही रचनाएँ मानी जाती हैं परन्तु जायसी की प्रसिद्धि का आधार तो 'पद्मावत' महाकाव्य ही है। जायसी की अनेक रचनाये जो आज तक प्रकाशित नही हुई है उसी में से एक मसलानामा और कहरामा भी थी

अन्य कृतियाँ

जायसी की मुख्य कृतियों के अलावा इनकी अतिरिक्त 'मसदा', , 'मुकहरानामा' व 'मुखरानामा', 'मुहरानामा', या 'होलीनामा', 'खुर्वानामा', 'संकरानामा', 'चम्पावत', 'मटकावत', 'इतरावत', 'लखरावत', 'मखरावत' या 'सुखरावत' 'लहरावत', 'नैनावात', 'घनावत', 'परमार्थ जायसी' और 'पुसीनामा' रचनाएँ भी जायसी की बतायी जाती हैं। किन्तु इनके विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है।
अमर बहादुर सिंह अमरेश जिन्होंने रानाबेनी माधव और राज कलस जैसे महान रचनाये की है उन्हें स्थानीय लोगो से कुछ पाण्डुलिप प्राप्त हुई जिसको उन्होंने प्रकशित किया जायसी के ग्रन्थों में प्रथम पाण्डुलिप उत्तर प्रदेश के तत्कालीन सरकार के श्रम व् सामुदायिक विकास उप मंत्री एवं जायस क्षेत्र के विधायक सैय्यद वसी नकवी साहब से प्राप्त हुई थी ।यह उनकी माता जी के पास सुरक्षित थी जो परिवार में परम्परागत चली आ रही "धाती" के रूप में थी । माता जी देहावसान जे बाद यह प्रति श्री नकवी साहब के हाथ लगी । जायसी के ग्रंथों की द्वितीय पांडुलिपि  लेखक अमर बहादुर सिंह अमरेश को सेमरौता जूनियर हाई स्कूल के रिटायर्ड प्रधानाध्यापक तिलोई निवासी सतनामी सम्प्रदाय के श्री  त्रिभुवन प्रसाद त्रिपाठी के पास से प्राप्त हुई। यह पांडुलिपि सतनामी संप्रदाय में चली आने वाली परंपरागत संपत्ति के रूप में थी। सतनामी सम्प्रदाय के गुरु जगजीवन साहब कोटवा बाराबंकी के शिष्य महात्मा दूलन दास के पुत्र श्री राम बक्स दास की प्रेरणा से यह लिखी गई थी इसे भी "मन दास" ने सन 1869 वि.  में लिखा था । बहुत समय तक यह सत्यनामी महात्माओं के पास घूमती रही बाद में यह प्रति पंडित त्रिभुवन प्रसाद जी त्रिपाठी के गुरु महात्मा चंद्र भूषण जी के हाथ लगी यह उनके पास भी काफी समय तक रही तत्पश्चात गुरु जी की कृपा से लेखक अमरेश  को मुद्रण के लिए प्राप्त हो गई ।इस पांडुलिपि में भी प्रथम पांडुलिपि की भाँति "पद्मावती "अखरावती" "कहरानामा" और "मसलानामा" संग्रहित है । इस लिपि में कैथी मिश्रित हिंदी है जिन्हें कैथी भाषा का अच्छा ज्ञान ना हो उन्हें इसे पढ़ने में कठिनाई पड़ेगी ।अक्षर बहुत सुंदर और स्याही काली चमकदार है ।लाल स्याही का प्रयोगपृष्ठों को सुन्दर बनाने के लिए किया गया है।  पांडुलिपि का प्रथम पृष्ठ ना होने से प्रारंभिक शब्द नहीं मिलते हैं पद्मावती के अंत में इतिश्री पद्मावती कथा संपूर्ण शुभमस्तु शुभ इसके पश्चात नीचे लिखा है श्री मनदास इससे स्पष्ट है कि इस पांडुलिपि के लेखक श्री मन दास जी हैं श्री मान दास जी कौन थे कहां के रहने वाले थे इस संबंध में बहुत कम ज्ञात हो सका है किंतु उन्होंने किस प्रकार जायसी की पांडुलिपि प्राप्त किया । इस प्रतिलिपि की यह कहानी बहुत रोचक है सतनामी संप्रदाय के आदि गुरु श्री गुरु जगजीवन साहब कोटवा धाम के चार शिष्य थे । गोसाई दास, दूलन दास, खेम दास ,तथा देवीदास यही 4 गद्दियां सतनामी संप्रदाय के चार पावे कहे जाते हैं । महात्मा दूलन दास ने 90 वर्ष की आयु में दूसरा विवाह किया था। जिससे रामबक्स नामक पुत्र  की उत्पत्ति हुई श्री रामबक्स जी अच्छे कवि एवं जायसी ग्रंथों के संकलनकर्ता हैं उन्होंने जायसी के ग्रंथों की प्रतिलिप की उसी पांडुलिपियां प्रतिलिपि है जिसे श्री मानदास जी ने लिखी है इसका प्रमाण लेखक मानदास जी ने स्वयं पद्मावती के अंत में पांडुलिपि लिखने का कारण बताते हुए लिखा है
सतगुरु समरथ साहेब राम बकस प्रमान है ।
तिन लिखियो ग्रन्थ पद्मावती परमान है ।।
साहेब राम बकस कह दीना ।
लिख पद्मावत पूरन किना ।।
इससे प्रतीत होता है कि मन दास की पांडुलिपि  200 वर्षों से सतनामी संतों के साथ घूमती रही लगभग 100 वर्ष बाद यह महात्मा चंद्र भूषण दास को प्राप्त हुई है। वर्तमान पंडित त्रिभवन प्रसाद जी त्रिपाठी इन्हीं महात्मा चंद्र भूषण दास जी के शिष्य हैं और यह पांडुलिपि अब उनके पास सुरक्षित है ।
दोनों उद्धरणों से मेरे कथन की पुष्टि हो जाती है इस पांडुलिपि के लेखक श्री मानदास सतनामी संप्रदाय के थे । उन्होंने अपने गुरु रामबक्स साहब के आदेश से इसकी प्रतिलिपि थी यह पांडुलिपि सन 1879 की है। जिसकी सूचना लेखक श्री मानदास के उन्हीं दो पृष्ठों वाले आत्मनिवेदन में मिलती हैं
संवत अठारह सौ ओनहत्तर लिखा पद्मावत कथा ।
पाण्डुलिप जो प्राप्त हुई

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