ऋषि कुमार संपादक रायबरेली न्यूज़
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गुरुवार, 16 अगस्त 2018
तिरगें को नमन
सोमवार, 6 अगस्त 2018
जब तिलोई के काँग्रेस कार्यालय पर अंगरेजी हुकूमत ने ताला लगा कर गाँधी टोपी और तिरंगे पर लगाया प्रतिबंध तब आज़ादी के मतवाले देशभक्तों ने ताला तोड़ कर जलाई आज़ादी की मशाल
रामस्वरूप मिश्रा विशारद आत्मज काशीदीन
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पूज्य श्री विशारद जी का जन्म अप्रैल 1902 में सेमरौता में हुआ था। जिला परिषद में अध्यापक की नौकरी त्यागकर लगान बंदी आंदोलन में आए सन 1932- 33 में दो बार 6 महीने की सख्त सजा पाई व्यक्तिगत सत्याग्रह में सन 1940- 41 में 1 वर्ष की सजा 50 रुपए का जुर्माना लगाया गया। भारत छोड़ो आंदोलन 1942 में 14 माह तक नजर बंद रहे कई साल तक जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष व उपाध्यक्ष तथा प्रांतीय व अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी व जिला बोर्ड के सदस्य रहे तिलोई और बछरावां सयुक्त विधानसभा से आप 1952 से 1957 तक विधायक भी रहे पंडित रामस्वरूप मिश्र विशारद जी की राजनीतिक तथा साहित्य दोनों में पैठ रही कृष्णायन महाकाव्य की रचना आपने की थी 13मई सन 1980 में स्वर्गवासी हुये।अहोरवा दीन यादव आत्मज अधीन यादव
अहोरवा दीन निवासी पहाड़पुर थाना मोहनगंज जिनका जन्म 1910 में तहसील तिलोई के पहाडपुर में हुआ था।गजाधर वर्मा आत्मा राम सहाय वर्मा निवासी अचकवापुर थाना मोहनगंज
रामदत्त वैद्य पुत्र कोहली प्रसाद ग्राम अहुरी थाना मोहनगंज
शमशेर खान पूरे धना पांडे मजरे मोहना थाना मोहनगंज
रविवार, 5 अगस्त 2018
तिरंगे की शान में रायबरेली में हुआ था देश का पहला बलिदान
तिरंगे झंडे के सम्मान के लिए विश्व की वीरता के इतिहास में एक स्मरणीय बलिदान हुआ ।एक अनपढ़ ग्रामीण वृद्धा के आत्म गौरव की भावना ने अंग्रेजी हुकूमत के फौलादी पंजों का पानी उतार दिया यह था । यह था रायबरेली के सलोन तहसील के करहिया बाजार का गोलीकांड । घटना की तिथि 20 मार्च 1921 मुंशीगंज हत्याकांड से ठीक कुछ दिन बाद का था ।करहिया रियासत का जागीदार बहुत जालिम था जनता का शोषण करने की कला में तो उस समय के सभी जागीदार पारंगत थे । और उसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे । किंतु यह जागीदार जुल्मों के नए-नए और नग्न रूप खोजने में आश्चर्य था । इतिहास का सबसे बड़ा बधिक नादिरशाह की बेरहमी उसके मुकाबले हेच थी ।
20 मार्च 1921 को करहिया बाजार में एक किसान सभा का आयोजन था । क्षेत्रीय किसानों को संगठित करने और रियासत के जागीदार के खिलाफ खुली बगावत के उद्देश्य से सभा को कुछ किसान नेता संबोधित करने आए थे । झुंनकू सिंह और बृजपाल सिंह इस सभा के मुख्य आयोजक और प्रमुख वक्ता थे।
झुंनकू सिंह इसी रियासत के एक साधारण किसान थे। सैकड़ों किसानों को लेकर झुंनकू सिंह ने अपनी आवाज उस दिन अधिकारियों तक पहुंचाने के लिए गढी को घेर लिया । सलोन थाने की पुलिस रियायत के जागीरदार की मदद को पहुंची उसने झुंनकू सिंह और बृजपाल सिंह को गिरफ्तार कर लिया । किंतु उन्हें वह वहां से ले ना जा सकी । भीड़ ने अपने नेताओं को पुलिस से छीन लिया । इस पर पुलिस ने गोली चला दी जिससे 2 किसान शहीद हुए और 5 घायल हो गए । लेकिन भीड़ से टस से मस ना हुई । थानेदार घबराकर सदल बल घटनास्थल से रफूचक्कर हो गया ।आधी रात से लेकर सुबह तक हजारों किसान बैठे रहे और भाषण होते रहे। पुलिस छिपी रही किंतु उसने घटना की सूचना सदर पहुंचा दी थी ।
शान न इसकी जाने पाए चाहे जान भले ही जाए
सुबह होते-होते जिला कलेक्टर और पुलिस कप्तान अतिरिक्त टुकड़ी लेकर मैदान में डटे । बड़े अधिकारियों को अमले के साथ देखकर लोगों का उत्साह और बढ़ा । सारा आकाश अत्याचार विरोधी नारों से गूंज उठा तिरंगे को हाथ में लेकर झुंनकू सिंह ने वंदे मातरम का जोरदार नारा लगाया ।
हजारों किसानों के स्वर से गूंजते नारों से अँग्रेजी हुक्मरान झेंप गए इस को मिटाने के लिए थानेदार झुंनकू सिंह के हाथ से तिरंगा छीनने के लिए झपट पड़े । तिरंगे झंडे के अपमान का खतरा देख कर वह झण्डा थामे थामे थानेदार से लिपट गया हुआ था । थानेदार ने दबोच कर जमीन पर पटक दिया लेकिन साथ ही साथ वह भी चारों खाने चित होकर कर गिर गया ।इस हंगामे में झंडा एक तरफ को खिसका तो उसे उठाने के लिए पुलिस वाले लपके मगर उनके लपकने से पहले सभा में भाग लेने आई करहिया बाजार सलोन से आयी वृद्धा भगतिन झण्डे से लिपट गई । और तिरंगें की शान बरकरार रखी । इस बीच क्या हुआ खिसियाया हुआ थानेदार उठा और उठते ही उसने पिस्तौल दाग दी गोली झुंनकू सिंह के छाती में लगी और वह शहीद हो गए। तिरँगा झंडा अभी तक मां भगतन के हाथों में था । थानेदार और सिपाहियों की शक्ति भी जब झंडा छीनने में असफल रही तो खुद थानेदार की गोली मां भगतन के सीने में धंस गई । बाद में माँ भगतिन का शव जब चिता पर रखा गया तब भी वही तिरँगा झण्डा उनसे लिपटा हुआ था । बाद में अँग्रेजी सरकार द्वारा मां भगतन का उनके बलिदान को कम करने की दृष्टि से सरकारी रिपोर्ट में कहा गया कि करहिया बाजार में पुलिस की गोली से एक व्यक्ति मारा गया और 7 घायल हुए उनको गिरफ्तार कर लिया गया । जिसमें से जेल में जाने से झुंझनू सिंह के घाव सड़ जाने से जेल में मृत्यु हो गई और बृजपाल सिंह को 4 वर्ष का कठोर कारावास दिया गया।
तिरंगे की शान में रायबरेली में हुआ था देश का पहला बलिदान
तिरंगे झंडे के सम्मान के लिए विश्व की वीरता के इतिहास में एक स्मरणीय बलिदान हुआ ।एक अनपढ़ ग्रामीण वृद्धा के आत्म गौरव की भावना ने अंग्रेजी हुकूमत के फौलादी पंजों का पानी उतार दिया यह था । यह था रायबरेली के सलोन तहसील के करहिया बाजार का गोलीकांड । घटना की तिथि 20 मार्च 1921 मुंशीगंज हत्याकांड से ठीक कुछ दिन बाद का था ।करहिया रियासत का जागीदार बहुत जालिम था जनता का शोषण करने की कला में तो उस समय के सभी जागीदार पारंगत थे । और उसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे । किंतु यह जागीदार जुल्मों के नए-नए और नग्न रूप खोजने में आश्चर्य था । इतिहास का सबसे बड़ा बधिक नादिरशाह की बेरहमी उसके मुकाबले हेच थी ।
20 मार्च 1921 को करहिया बाजार में एक किसान सभा का आयोजन था । क्षेत्रीय किसानों को संगठित करने और रियासत के जागीदार के खिलाफ खुली बगावत के उद्देश्य से सभा को कुछ किसान नेता संबोधित करने आए थे । झुंनकू सिंह और बृजपाल सिंह इस सभा के मुख्य आयोजक और प्रमुख वक्ता थे।
झुंनकू सिंह इसी रियासत के एक साधारण किसान थे। सैकड़ों किसानों को लेकर झुंनकू सिंह ने अपनी आवाज उस दिन अधिकारियों तक पहुंचाने के लिए गढी को घेर लिया । सलोन थाने की पुलिस रियायत के जागीरदार की मदद को पहुंची उसने झुंनकू सिंह और बृजपाल सिंह को गिरफ्तार कर लिया । किंतु उन्हें वह वहां से ले ना जा सकी । भीड़ ने अपने नेताओं को पुलिस से छीन लिया । इस पर पुलिस ने गोली चला दी जिससे 2 किसान शहीद हुए और 5 घायल हो गए । लेकिन भीड़ से टस से मस ना हुई । थानेदार घबराकर सदल बल घटनास्थल से रफूचक्कर हो गया ।आधी रात से लेकर सुबह तक हजारों किसान बैठे रहे और भाषण होते रहे। पुलिस छिपी रही किंतु उसने घटना की सूचना सदर पहुंचा दी थी ।
शान न इसकी जाने पाए चाहे जान भले ही जाए
सुबह होते-होते जिला कलेक्टर और पुलिस कप्तान अतिरिक्त टुकड़ी लेकर मैदान में डटे । बड़े अधिकारियों को अमले के साथ देखकर लोगों का उत्साह और बढ़ा । सारा आकाश अत्याचार विरोधी नारों से गूंज उठा तिरंगे को हाथ में लेकर झुंनकू सिंह ने वंदे मातरम का जोरदार नारा लगाया ।
हजारों किसानों के स्वर से गूंजते नारों से अँग्रेजी हुक्मरान झेंप गए इस को मिटाने के लिए थानेदार झुंनकू सिंह के हाथ से तिरंगा छीनने के लिए झपट पड़े । तिरंगे झंडे के अपमान का खतरा देख कर वह झण्डा थामे थामे थानेदार से लिपट गया हुआ था । थानेदार ने दबोच कर जमीन पर पटक दिया लेकिन साथ ही साथ वह भी चारों खाने चित होकर कर गिर गया ।इस हंगामे में झंडा एक तरफ को खिसका तो उसे उठाने के लिए पुलिस वाले लपके मगर उनके लपकने से पहले सभा में भाग लेने आई करहिया बाजार सलोन से आयी वृद्धा भगतिन झण्डे से लिपट गई । और तिरंगें की शान बरकरार रखी । इस बीच क्या हुआ खिसियाया हुआ थानेदार उठा और उठते ही उसने पिस्तौल दाग दी गोली झुंनकू सिंह के छाती में लगी और वह शहीद हो गए। तिरँगा झंडा अभी तक मां भगतन के हाथों में था । थानेदार और सिपाहियों की शक्ति भी जब झंडा छीनने में असफल रही तो खुद थानेदार की गोली मां भगतन के सीने में धंस गई । बाद में माँ भगतिन का शव जब चिता पर रखा गया तब भी वही तिरँगा झण्डा उनसे लिपटा हुआ था । बाद में अँग्रेजी सरकार द्वारा मां भगतन का उनके बलिदान को कम करने की दृष्टि से सरकारी रिपोर्ट में कहा गया कि करहिया बाजार में पुलिस की गोली से एक व्यक्ति मारा गया और 7 घायल हुए उनको गिरफ्तार कर लिया गया । जिसमें से जेल में जाने से झुंझनू सिंह के घाव सड़ जाने से जेल में मृत्यु हो गई और बृजपाल सिंह को 4 वर्ष का कठोर कारावास दिया गया।
सोमवार, 30 जुलाई 2018
रायबरेली का वो एतिहासिक केस जिसमें गणेश शंकर विद्यार्थी जी पर अंग्रेजी सरकार द्वारा लगाये गए जुर्माने को रायबरेली के सेठ कंधई लाल अग्रवाल ने भरा
जनवरी 1921 मुंशीगंज गोलीकांड से ना केवल रायबरेली बल्कि पूरा देश राजनीतिक चेतना से ओत प्रोत हो गया आजादी की लड़ाई में प्राणोत्सर्ग की भावना आम हो गई समाचार पत्रों ने प्रायः एक ही स्वर से सरदार बीर पाल सिंह को गोली कांड का दोषी ठहराया सप्ताहिक प्रताप के यशस्वी संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी ने उक्त कांड की जांच के लिए अपनी ओर से सर्वश्री उमाशंकर दीक्षित पंडित बालकृष्ण शर्मा नवीन तथा पंडित जगन्नाथ प्रसाद को रायबरेली भेजा इस जांच की रपट विद्यार्थी जी ने प्रताप के 19 जनवरी 1921 के अंक में पुनः प्रकाशित की इलाहाबाद का दैनिक इंडिपेंडेंट भी पीछे नहीं रहा
धन और पशुबल के मद में चूर सरदार वीरपाल सिंह एमएलसी आत्मज सरदार प्रेम सिंह तालुकेदार खुरहटी ने प्रताप और इंडिपेंडेंट को नोटिस दी कि यदि दोनों समाचार पत्र मुंशीगंज हत्याकांड का उन पर किया गया दोषारोपण वापस नहीं लेंगे तो उन पर वैधानिक कार्यवाही की जाएगी
प्रताप के संपादक और प्रकाशक का उक्त उत्तर पा कर बीरपाल सिंह बौखला गया अंग्रेजी अधिकारियों की शह पाकर उसने जिला रायबरेली के सर्किट मजिस्ट्रेट की अदालत में सरदार वीरपाल सिंह बनाम गणेश शंकर विद्यार्थी एडिटर प्रताप कानपुर व् शिव नरायण मिश्र पब्लिशरफीलखाना बाजार कानपुर पर जुर्म धारा 499/500 ताजीरातहिन्द नामक ऐतिहासिक मुकदमा कायम कराया.
सरदार बीरपाल सिंह की ओर से मुकदमे की पैरवी मुं अफजल खां बार- एट- ला ने की उक्त सनसनीखेज मुकदमे में प्रताप की पैरवी करने के लिए चोटी के वकीलों ने अपनी सेवाये समर्पित की थी जिनमें प्रमुख थे श्री बाबू किसमतराय जगधारी.( रायबरेली ) हरिमोहन बार-एट- ला ( इलाहाबाद ) विशंभर नाथ बाजपेई (उन्नाव) पंडित लक्ष्मी शंकर मिश्र (भूतपूर्व चीफ जस्टिस हैदराबाद ) प्रसिद्ध साहित्यकार वृंदावनलाल वर्मा (झांसी) पंडित प्रकाश मिश्रा (लखनऊ ) जगन्नाथ चौधरी (उन्नाव )
विद्यार्थी जी का जुर्माना सेठ कन्हई लाल अग्रवाल ने भर दिया किंतु शिव नारायण मिश्र ने सेशन जज एफ जी शेरिंग की अदालत में फैसले के विरुद्ध अपील कर दी लेकिन यह अपील 30 जुलाई 1921 को खारिज कर दी गई अपील खारिज किए जाने का समाचार जैसे ही अदालत से बाहर खड़ी भीड़ को मिला वह उत्तेजित हो गई रास्ट्रीय नारों के साथ गणेश शंकर विद्यार्थी तथा शिव नारायण मिश्र की जय जयकार करने लगी ने भीड़ इतने आक्रोश में थी कि गणेश जी को 1 घंटे तक अदालत से बाहर नहीं लाया जा सका उत्तेजित भीड़ से आशंकित होकर जिला जज नानावती ने फ़ौरन अपने बंगले से ही जमानत स्वीकार कर ली उत्साह और साहस से जनता ने राष्ट्रीय नेताओं की जय के नारों गणेश जी की जयऔर शिव नरायण मिश्र के जय का नारा लगाया जो अभूतपूर्व दृश्य था
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दैनिक प्रताप समाचार पत्र |
शुक्रवार, 27 जुलाई 2018
जायसी कृति "कहरानामा" और "मसलानामा" जिसकी पाण्डुलिप तिलोई के सतनामी संत दूलनदास के पुत्र और जायस के पूर्व मंत्री के पुश्तैनी विरासत थी
मलिक मुहम्मद जायसी (१४७७-१५४२) हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं। वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। जायसी मलिक वंश के थे
कहरानामा का रचना काल 947 हिजरी बताया गया है। यह काव्य ग्रंथ कहरवा या कहार गीत उत्तर प्रदेश की एक लोक- गीत पर आधारित में कवि ने कहरानाम के द्वारा संसार से डोली जाने की बात की है।
इनके अतिरिक्त 'महरी बाईसी' तथा 'मसलानामा' भी आपकी ही रचनाएँ मानी जाती हैं परन्तु जायसी की प्रसिद्धि का आधार तो 'पद्मावत' महाकाव्य ही है। जायसी की अनेक रचनाये जो आज तक प्रकाशित नही हुई है उसी में से एक मसलानामा और कहरामा भी थी
अन्य कृतियाँ
जायसी की मुख्य कृतियों के अलावा इनकी अतिरिक्त 'मसदा', , 'मुकहरानामा' व 'मुखरानामा', 'मुहरानामा', या 'होलीनामा', 'खुर्वानामा', 'संकरानामा', 'चम्पावत', 'मटकावत', 'इतरावत', 'लखरावत', 'मखरावत' या 'सुखरावत' 'लहरावत', 'नैनावात', 'घनावत', 'परमार्थ जायसी' और 'पुसीनामा' रचनाएँ भी जायसी की बतायी जाती हैं। किन्तु इनके विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है।अमर बहादुर सिंह अमरेश जिन्होंने रानाबेनी माधव और राज कलस जैसे महान रचनाये की है उन्हें स्थानीय लोगो से कुछ पाण्डुलिप प्राप्त हुई जिसको उन्होंने प्रकशित किया जायसी के ग्रन्थों में प्रथम पाण्डुलिप उत्तर प्रदेश के तत्कालीन सरकार के श्रम व् सामुदायिक विकास उप मंत्री एवं जायस क्षेत्र के विधायक सैय्यद वसी नकवी साहब से प्राप्त हुई थी ।यह उनकी माता जी के पास सुरक्षित थी जो परिवार में परम्परागत चली आ रही "धाती" के रूप में थी । माता जी देहावसान जे बाद यह प्रति श्री नकवी साहब के हाथ लगी । जायसी के ग्रंथों की द्वितीय पांडुलिपि लेखक अमर बहादुर सिंह अमरेश को सेमरौता जूनियर हाई स्कूल के रिटायर्ड प्रधानाध्यापक तिलोई निवासी सतनामी सम्प्रदाय के श्री त्रिभुवन प्रसाद त्रिपाठी के पास से प्राप्त हुई। यह पांडुलिपि सतनामी संप्रदाय में चली आने वाली परंपरागत संपत्ति के रूप में थी। सतनामी सम्प्रदाय के गुरु जगजीवन साहब कोटवा बाराबंकी के शिष्य महात्मा दूलन दास के पुत्र श्री राम बक्स दास की प्रेरणा से यह लिखी गई थी इसे भी "मन दास" ने सन 1869 वि. में लिखा था । बहुत समय तक यह सत्यनामी महात्माओं के पास घूमती रही बाद में यह प्रति पंडित त्रिभुवन प्रसाद जी त्रिपाठी के गुरु महात्मा चंद्र भूषण जी के हाथ लगी यह उनके पास भी काफी समय तक रही तत्पश्चात गुरु जी की कृपा से लेखक अमरेश को मुद्रण के लिए प्राप्त हो गई ।इस पांडुलिपि में भी प्रथम पांडुलिपि की भाँति "पद्मावती "अखरावती" "कहरानामा" और "मसलानामा" संग्रहित है । इस लिपि में कैथी मिश्रित हिंदी है जिन्हें कैथी भाषा का अच्छा ज्ञान ना हो उन्हें इसे पढ़ने में कठिनाई पड़ेगी ।अक्षर बहुत सुंदर और स्याही काली चमकदार है ।लाल स्याही का प्रयोगपृष्ठों को सुन्दर बनाने के लिए किया गया है। पांडुलिपि का प्रथम पृष्ठ ना होने से प्रारंभिक शब्द नहीं मिलते हैं पद्मावती के अंत में इतिश्री पद्मावती कथा संपूर्ण शुभमस्तु शुभ इसके पश्चात नीचे लिखा है श्री मनदास इससे स्पष्ट है कि इस पांडुलिपि के लेखक श्री मन दास जी हैं श्री मान दास जी कौन थे कहां के रहने वाले थे इस संबंध में बहुत कम ज्ञात हो सका है किंतु उन्होंने किस प्रकार जायसी की पांडुलिपि प्राप्त किया । इस प्रतिलिपि की यह कहानी बहुत रोचक है सतनामी संप्रदाय के आदि गुरु श्री गुरु जगजीवन साहब कोटवा धाम के चार शिष्य थे । गोसाई दास, दूलन दास, खेम दास ,तथा देवीदास यही 4 गद्दियां सतनामी संप्रदाय के चार पावे कहे जाते हैं । महात्मा दूलन दास ने 90 वर्ष की आयु में दूसरा विवाह किया था। जिससे रामबक्स नामक पुत्र की उत्पत्ति हुई श्री रामबक्स जी अच्छे कवि एवं जायसी ग्रंथों के संकलनकर्ता हैं उन्होंने जायसी के ग्रंथों की प्रतिलिप की उसी पांडुलिपियां प्रतिलिपि है जिसे श्री मानदास जी ने लिखी है इसका प्रमाण लेखक मानदास जी ने स्वयं पद्मावती के अंत में पांडुलिपि लिखने का कारण बताते हुए लिखा है
संवत अठारह सौ ओनहत्तर लिखा पद्मावत कथा ।
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पाण्डुलिप जो प्राप्त हुई |
गुरुवार, 31 मई 2018
संत श्री जगजीवन साहेब कोटवा बाराबंकी
संत श्री जगजीवन साहेब का जन्म बाराबंकी जिले में घाघरा नदी तट की ग्राम सरदार के एक चंदेल क्षत्रिय परिवार में संवत 1727 विक्रमी माघ शुक्ल सप्तमी दिन मंगलवार (7 फरवरी 1670 ईस्वी) को प्रातः काल की बेला में हुआ था। पूर्व जन्म संस्कारों के प्रतिफलन में बालपन से ही उनमें सात्विक स्वभाव, प्राणियों से प्रेम और साधु सेवा का भाव उदय हुआ। किशोरावस्था पहुंचते ही उन्होंने गुरुसडी - गोंडा के प्रसिद्ध संत विशेश्वर पुरी से दीक्षा और मंत्र लेकर साधना रथ हो गए। नाम जप से प्रारंभ कर अजपा जप, सूरत साधना व निर्गुण ब्रह्म की उपासना की ओर वह बढ़ते चले गए। ग्रहस्थ जीवन अपना कर भी गहरी लगन, तन्मयता, शुद्ध सात्विक जीवन व समर्पण भाव के बल पर वे प्रायः समाधि और ज्योतित ब्रह्मानुभूति में डूब जाते थे। उनकी उच्च आध्यात्मिकता और तेजस्विता से प्रभावित हो अनेक भक्ति निकट जुड़ने लगे। 38 वर्ष की आयु तक संत श्री की ख्याति दिग-दिगंत में फैल चुकी थी। उस समय तक उनके 87 मुख्य शिष्य, आध्यात्म की प्रबल धारा में डूब, सतनाम पंथ के प्रसार में जो चुके थे, जन्म स्थान में साधना में विघ्न पाकर संत श्री कोट वन (वर्तमान कोटवाधाम) में आ विराजे और जीवन पर्यंत यही रहे। समर्थ गुरु ने भ्रमित समाज को जागृत करने और सच्चे धर्म की ओर मोड़ने के लिए "मूल गद्दी कोटवाधाम" के अंतर्गत चार आधार स्तंभ (चार पावा) स्थापित किया। श्री गोसाई दास जी (कमोली धाम), श्री दुलन दास जी (धर्मे धाम), श्री देवी दास जी (पुरवा धाम) पूरे देवीदास और श्री ख्याम दास जी (मधनापुर धाम), संत श्री द्वारा घोषित आदि महंत बने। संत श्री के समान यह सभी उच्च कोटि के गृहस्थ साधक थे। एक सतनामी ग्रंथ के अनुसार -
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जग जीवन धारा सलिल, दूलन दास जहाज।
देवीदास केवट सरिस, तारयो सकल समाज।।
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इन चार स्तंभों के अतिरिक्त साधना स्तर के अनुसार 14 गद्दीधर, 36 भजनिया, 33 सुमिरिनिहा महंतों व भक्तों की श्रंखला खड़ी हो गई जो उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में फैले हुए थे। संत श्री ने साधना उपलब्धि को सराहा, कुल और वर्ण को नहीं। इसी कारण उन्होंने कुर्मी, कोरी, धुनिया, मुराई, रैदास, कायस्थ, बनिया, यादव, पंजाबी आदि सभी जातियों और मुस्लिम वर्ग के सतनाम भक्ति धारा से अनुप्रमाणित भक्तों को महंत गद्दीधर के पद दिया। समर्थ गुरु जगजीवन साहब ने जटिल पूजा पाठ, मिथ्या कर्मकांड, सकाम तीर्थ स्नान और यज्ञ-पुरश्चरण के स्थान पर शुद्ध जीवन अपना कर निस्वार्थ भाव से माया-लिप्सा से दूर रहकर नाम-जप का उपदेश दिया। ईश्वर प्राप्ति व मन की शांति के लिए बन बन भटकने के स्थान पर गृहस्थ रूप में रहकर भी ममत्व, अहंकार एवं इंद्रिय दासता से परे हट सार्थक जीवन जिया जा सकता है और उच्चतम साधना की जा सकती है यही उन्होंने अपने जीवन में चरितार्थ किया। भक्तों पर कृपा कर उन्हें भी उसी मार्ग में आगे बढ़ा सूरत साधना में रत कर दिया। समर्थ गुरु एवं शिष्यों की उच्च साधना के फल स्वरुप अनेक अनहोनी घटनाएं जन जन को देखने को मिली, जो कीरत सागर नामक ग्रंथ में वर्णित है। ये प्रकट करती है कि साधक ईश्वर के समान सामर्थवान बन जाता है, एवं करुणा वश उन्हें प्रकट कर देता है। संत श्री का सारा जोर सहज निर्मल जीवन जीने, माया और आसक्ति में न फंसने, नाम जप का आश्रय ले सूरत ध्यान में डूब जाने, एवं साधु सेवा व सत्संग पर दिया गया है वह परम तत्व सातवें लोक में ना होकर जन जन के अंतर स्थल में समाया है, इसीलिए बाहर भटकने के बजाय सारी शक्तियों को अंतर्मुखी कर हृदय स्थल में उसे खोजने, उसको पाने की गहरी ललक जगाने और गहनतम व्याकुलता के बल पर उस तक पहुंचा जा सकता है। जिसमे "स्व" व देहभाव पूर्ण रुप से विगलित हो शून्यमय हो जाता है। उसी शून्य दशा में सीमातिक्रमण हो परम सत्ता का अवतरण होता है अचानक जीवन का स्वरुप बदल जाता है अलौकिक ज्योति के दर्शन कर भक्त परम आनंद में डूब जाता है ऐसा मिलन होने पर सृष्टि का कण-कण ईश्वर में लगने लगता है। प्रारंभ में यह दशा क्षणिक होती है परंतु भक्त साधना के बल पर उसे दृढतर कर स्थायित्व देता है। संसार से भागकर, उससे लड़कर, उसे नहीं जीता जा सकता है। आखिर वह भी तो उसी परमसत्ता की रचना है, उसी का अंश रूप है। छोड़ना "मन" का धर्म है नाकी शरीर का इसलिए दूर हट कर भी न "मैं" छूटता है, न माया और न इंद्रिय सुख। मन को जकड़ कर बांध लिया तो घर संसार में रहकर भी क्या बिगड़ेगा? संत जगजीवन साहब ने गृहस्थो से कहा -
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अल्प आहार, स्वल्प ही निद्रा, दया क्षमा प्रभु प्रीत।
शील संतोष सदा निरवाहो, है वह त्रिगुणातीत।।
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संत श्री ने 27 ग्रंथ लिखवाएं, जिन्हें उत्तराधिकारी संतों द्वारा 13 स्वतंत्र व 14 लघु ग्रंथों को 5 में संयुक्त कर 18 ग्रंथ बताए गए हैं। उनमें से "अघबिनास" प्रमुख है। जो कि साधना पंथ का मार्गदर्शक है। इसे संत श्री ने शिष्य, विष्णुदास मुल्तानी के द्वारा सन 1721-23 ईसवी में लिखवाया। इसमें भक्ति, वैराग्य, सगुण - निर्गुण और मोह - माया, लिप्सा आदि का विवेचन है। जो कि चार संवादों के मध्य पिरोया है ..... । (SSD/३१/०५/१८/संकलित अंश "अघबिनास" ग्रंथ आमुख)
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जय जगजीवन, जय सतनाम!
अघम उद्धारन, श्री कोटवाधाम!!
तिरगें को नमन
झूमे धरती झूमे अंबर झूमता है दिग - दिगंत भूली बिसरी यादें लेके आया है 15 अगस्त करू तिरंगे को नमन सर झुका कर आंख नम ऐ शहीदों आप क...

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'श्रीरामचरितमानस' के अद्भुत टीकाकार थे शाहमऊ विकास खण्ड तिलोई जनपद अमेठी के महाराज कुमार बाबू रणबहादुर सिंह भारतीय राजवं...
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मलिक मुहम्मद जायसी (१४७७-१५४२) हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं। वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार ...
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पहली बार उसे रंडी तब बोला गया जब वह करीब 8 साल की थी. घर में किसी ने गाली दी थी. शायद बड़ी या छोटी दादी में से कोई थी. घर का माहौल ऐसा था कि ...