सब काहे भूलहु हो भाई, तू तो सतगुरु सबद समइले हो।
ना प्रभु मिलिहै जोग जाप तें, ना पथरा के पूजे।
ना प्रभु मिलिहै पउआं पखारे, ना काया के भूंजे।।
दया धरम हिरदे में राखहु, घर में रहहु उदासी।
आनकै जिव आपन करि जानहु, तब मिलिहैं अविनासी।
पढ़ि-पढ़ि के पंडित सब थाके, मुलना पढ़ै कुराना।
भस्म रमाइ जोगिया भूले, उनहूं मरम न जाना।।
जोग जाग तहियां से छाड़ल, छाड़ल तिरथ नहाना।
दूलनदास बंदगी गावै, है यह पद निरबाना।।
सब
काहे भूलहु हो भाई, तू तो
सतगुरु सबद समइले हो
दूलनदास
कहते हैं,
चिंता
मत करना कि सब भूल गए हैं इसलिए मैं क्या करूं? तुम जागना चाहो तो जाग सकते हो। सब किए रहें
आंख बंद,
तुम
आंख खोलना चाहो तो खोल सकते हो। तुम्हारा निर्णय ही निर्णायक है।
ना
प्रभु मिलिहै जोग जाप तें . . .
खयाल
रखना, सभी संतों ने इस बात पर जोर
दिया है।
ना
प्रभु मिलिहै जोग जाय तें, ना
पथरा के पूजे
ना
प्रभु मिलिहै पउआं पखारे, ना
काया के भूंजे
न तो
शरीर को जलाने से मिलेंगे प्रभु, न कोड़े
मारने से,
न
कांटों पर लेटने से, न धूप
में पड़े रहने से,
न शरीर
को गलाने से,
न
सताने से। परमात्मा कोई विक्षिप्त तो नहीं है कि तुम्हारे शरीर को दुःख तुम दो और
वह प्रसन्न हो;
कि तुम
तपती आग जैसी तपती रेत में तड़फो मछली की तरह और परमात्मा प्रसन्न हो! अगर परमात्मा
कुछ ऐसा हो तो विक्षिप्त परमात्मा है, पागल है।
लेकिन
तुम्हारे तपस्वी यही सोच रहे हैं कि जितना हम अपने को सताएंगे उतना परमात्मा
प्रसन्न होगा। यह तो बात बड़ी मूढ़ता की है। यह तो ऐसी मूढ़ता की है कि बच्चा सोचे कि
जितना मैं अपने को सताऊंगा उतना मेरी मां प्रसन्न होगी; अगर मैं सारे शरीर में कांटे
चुभा लूं और मुंह में भाला भोंक लूं, शरीर को लहूलुहान कर लूं, घावों से भर दूं तो मां बड़ी
प्रसन्न होगी। लेकिन तुम्हारे तथाकथित त्यागीत्तपस्वियों की यही तर्क-सरणी है। इस
तर्क-सरणी से परमात्मा प्रसन्न नहीं होता। इस तर्क-सरणी से केवल तुम्हारे तथाकथित
त्यागीत्तपस्वियों का अहंकार तृप्त होता है।
ना
प्रभु मिलिहै जोग जाप तें, ना
पथरा के पूजे
ना
प्रभु मिलिहै पउआं पखारे, ना
काया के भूंजे
दया
धरम हिरदे में राखहु, घर में
रहहु उदासी
बहुत
सीधी-साफ बात कहते दूलनदास। इतना ही कर लो कि प्रेम हो हृदय में, दया हो, करुणा हो, सद्भाव हो।
धर्म
का अर्थ होता है,
जो
स्वभाव है उस स्वाभाविक ढंग से जियो। प्यास लगे तो पानी पीना स्वभाव है। ज्यादा
पानी पी जाना विभाव है। प्यासे पड़ा रहना विभाव है। भूख लगे तो सम्यक् भोजन स्वीकार
कर लेना स्वभाव है। अति भोजन करना अस्वाभाविक है, उपवासे रहना अस्वाभाविक है।
स्वभाव में जो थिर हो जाता है वह परमात्मा का प्रिय हो जाता है। स्वभाव संतुलन है।
स्वाभाविक बनो। सारे संतों ने, जिन्होंने
जाना है उन्होंने इतना ही कहा है स्वभाव में थिर हो जाओ। अति न करो, अति वर्जित है।
दया
धरम हिरदे में राखहु, घर में
रहहु उदासी
और बड़ी
अद्भुत बात कह रहे हैं। कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं है--जंगल पर्वत, पहाड़। घर छोड़कर भाग जाने की
भी जरूरत नहीं है। घर में रहहु उदासी ः घर में ही रहो जैसे हो वैसे ही। पति हो तो
पति, पत्नी हो तो पत्नी, दुकानदार हो तो
दुकानदार--जैसे हो वैसे ही रहो। बस इतनी बात साध लेना कि जगत् से आशा मत रखना।
उदासी
का अर्थ होता है,
जगत से
आशा मत रखना। जगत कुछ देनेवाला नहीं है। खाली हाथ आए, खाली हाथ जाना है। उद्आस। आशा
छोड़ दो जगत से। जिसने जगत से आशा छोड़ दी उसकी परमात्मा से आशा जुड़ जाती है। जिसकी
जगत से जुड़ी उसकी परमात्मा से टूट जाती है।
और एक
बात और याद दिला दूं, उदास
शब्द का बड़ा गलत अर्थ हो गया है। हम उदास उन लोगों को कहते हैं जिनके चेहरे लटके
हुए हैं,
मुर्दों
की तरह बैठे हुए हैं, उनको
हम कहते हैं कि उदास। उदास का यह अर्थ नहीं है। यह गलत अर्थ है। उदास का इतना ही
अर्थ है जिसकी जगत में आशा नहीं है। जिसने समझ लिया कि यहां कुछ मिलने को नहीं है।
रेत से लाख निचोड़ो तेल, निचुड़ेगा
नहीं; ऐसा जिसने समझ लिया। अब यह
कोई चेहरा लंबा करके और कालिख पोतकर और आंसू टपकाता हुआ रोएगा थोड़े ही। रोने की
क्या जरूरत है?
बात
समझ में आ गई कि रेत से तेल नहीं निकलता है। इसमें रोना क्या, उदास क्या होना! हमारे अर्थों
में उदास क्या होना! लंबा चेहरा क्या बनाना! लेकिन तुमने सदियों-सदियों में उदास
का यही अर्थ कर लिया है। मुर्दों को तुम उदास कहते हो। जो बड़ा गंभीर चेहरा बनाए
बैठे हुए हैं,
जिनकी
जिंदगी एक रुदन है, मरघट
जैसी है;
जैसे
लाश के पास बैठे हों, जिनके
चेहरे पर हमेशा मातम छाया हुआ है, ऐसे
लोगों को तुम उदास कहते हो। यह गलत अर्थ है।
उदासी का अर्थ होता है, संसार व्यर्थ है, यह बात समझ में आ गई।
परमात्मा सार्थक है। जिसको यह समझ में आ गया कि संसार व्यर्थ है वह तो आनंदित हो
उठेगा,
उदास
नहीं। क्योंकि सत्य का आधा काम तो पूरा हो गया। और जिसको यह समझ में आ गया कि
परमात्मा में ही असली आशा है, उसी के
साथ फूल खिलेंगे;
उसी के
साथ रस बहेगा। उसके जीवन में तो मंगल ही मंगल छा जाएगा। उसके जीवन में तो गीत और
गान होंगे। उसका जीवन तो महोत्सव होगा, उदासी कहां? वह तो नाचेगा। पद घुंघरू बांध
मीरा नाची रे। उसके जीवन में तो बड़ी उत्फुल्लता होगी, उदासी से ठीक विपरीत अवस्था
होगी। अगर कोई सच्चे अर्थों में उदास है तो उसके जीवन में "प्रेम-रंग-रस ओढ़
चदरिया'--ऐसी घटना घटेगी। वह तो प्रेम
की, रस की, रंग की चादर को ओढ़कर नाचेगा।
उसके हाथ में तो इकतारा होगा। और यह बातें वह बातें ही नहीं करेगा, वह आनंद की बातें ही नहीं
करेगा, बरसेगा।
ओशो द्वरा दिनांक: 01 फरवरी सन् 1979 ,श्री ओशो आश्रम , पूना में दिये गये प्रवचन पर आधरित
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